गेहूं का रोली रोग (Wheat Rust) – प्रकार, लक्षण, रोगज़नक़ और नियंत्रण

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गेहूं का किट्ट या रोली रोग

किट्ट या रोली एक पादप रोग है, जिसमें पौधे के भाग जंगदार दिखाई देते हैं तथा यह रोग यूरेडिनेल्स गण के कवकों द्वारा होता है।

डॉ. के.सी. मेहता को ‘भारतीय किट्ट का पितामह’ कहा जाता है। गेहूँ के रोली रोग का सर्वप्रथम विस्तारपूर्वक वर्णन Fontana एवं Tozzetti द्वारा 1967 में किया गया।

  • किट्ट कवक अविकल्पी परजीवी (Obligate Parasite) होते हैं।
  • किट्ट रोग भारत के कई क्षेत्रों जैसे मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश , जालौर, राजस्थान में महामारी के रूप में प्रकट हुआ था|

किट्ट कवक 5 तरह के बीजाणु उत्पन्न करते हैं:-

  • पिक्नो बीजाणु
  • ईशियम बीजाणु
  • यूरीडो बीजाणु
  • टिलियो बीजाणु
  • बेसिडियम बीजाणु

जो 5 विभिन्न फलनकाय में उत्पन्न होते हैं,

  • पिक्नियम
  • ईशियम
  • यूरीडियम
  • टिलियम
  • बेसिडियम
  • इस कारण इन्हें वृहत चक्रीय किट्ट कवक (Macrocyclic rust fungus) कहा जाता है।
  • किट्ट कवकों के यूरिडोबीजाणुओं को आवृति बीजाणु (Repeating spore) भी कहा जाता है।
  • भारत में भूरी किट्ट सबसे सामान्य एवं सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाने वाला रोग है।

गेहूँ पर तीन तरह के किट्ट रोग पाए जाते हैं-

  • काला किट्ट (तना किट्ट)
  • भूरा किट्ट (पर्ण किट्ट)
  • पीला किट्ट (धारीधार किट्ट)

काला किट्ट/रोली (Black Rust)

उत्तरी भारत में यह रोग मार्च से पहले प्रकट नहीं होता है। इस कारण इसे पछेती किट्ट (Late rust) भी कहा जाता है।

  • Ug-99 काला किट्ट कवक की नई खतरनाक व तेजी से फैलती प्रजाति है। इसकी उत्पत्ति यूगान्डा में हुई ।

रोग के लक्षण

  • इस रोग का प्रकोप गेहूँ के तने पर ज्यादा होता है। इस कारण इसे तना किट्ट रोग भी कहा जाता है। भारत में यह रोग मार्च के अंत में प्रकट होत हैं।
  • रोग की प्रारम्भिक अवस्था में तने, पत्तियों तथा पर्णच्छद पर यूरिडिया बीजाणुओं के भूरे रंग के स्फोट (Pustule) दिखाई देते हैं, जिससे पौधा जंगदार दिखाई देता है।
  • यह स्फोट प्रारम्भ में झिल्लीमय बाह्य त्वचा से ढके रहते हैं परन्तु जैसे-जैसे इनका आकार बढ़ता है, बाह्य त्वचा फट जाती है और भूरे रंग के यूरिडो बीजाणु महीन चूर्ण की भाँति हवा में बिखर जाते हैं। बाद इन स्फोटो (Pustules) के स्थान पर गहरे काले रंग के टीलियम बनते है।
  • टीलियम में काले रंग के टीलियोबीजाणु बनते हैं जो बाह्य त्वचा फटने पर हवा में मुक्त हो जाते हैं।

रोगजनक

पक्सिनीया ग्रेमिनिस वैरा. ट्रिटिसाई (Puccinia graminis var. tritici)

KingdomGenusSpecies
FungiPucciniagraminis var. tritici
  • यह एक अविकल्पी परजीवी (Obligate parasite), बहुरूपी (Poly morphic) एवं वृहत् चक्रीय (Macrocyclic) कवक है।
  • यह एक भिन्नाश्रयी (Heteroceious) कवक हैं अर्थात् इसको सम्पूर्ण जीवन चक्र के लिए दो भिन्न परपोषियों की आवश्यकता पड़ती है।
  • कवक का कवकजाल काचाभ, अंतः कोशिकी होता है।

भूरा किट्ट/रोली (Brown Rust )

भारत में यह उत्तरी एवं दक्षिणी भागों में अधिक पाया जाता है। यह रोग काला किट्ट की तुलना में पहले प्रकट होता है । बिहार और उत्तरप्रदेश में यह रोग गेहूँ की सोनालिका किस्म पर महामारी के रूप में प्रकट हुआ।

  • इस रोग को ‘पर्ण किट्ट (Leaf rust) या नारंगी किट्ट (Orange rust) या गेरुआ‘ भी कहते हैं।

रोग के लक्षण

  • इस किट्ट रोग में यूरिडिनियो स्फोट (Uredino Pustules) मुख्यतया पत्ती पर ही बनते हैं, इस कारण इसे पर्ण किट्ट कहा जाता है।
    आरम्भ में यह केवल पत्ती की ऊपरी सतह पर ही बनते हैं, बाद में दोनों सतह पर बन जाते हैं।
  • आरम्भ में इन यूरिडिनियो स्फोटों का रंग हल्का नारंगी होता है, परन्तु परिपक्व होने पर इनका रंग भूरा हो जाता है। इस कारण इसे भूरा किट्ट रोग भी कहते हैं ।
  • रोग के बढ़ने पर बाद में टीलियो स्फोट बनते हैं,और बाह्य त्वचा से ढके होते हैं।

रोगजनक

पक्सीनिया रिकान्डिटा (Puccinia recondita) या पक्सीनिया ट्रिटिसीना (Puccinia triticina )

KingdomGenusSpecies
FungiPucciniarecondita or triticina
  • यह एक अविकल्पी परजीवी और बहुरूपी कवक है।
  • यह एक वृहत् चक्रीय कवक है क्योकि ये पाँचों प्रकार (पिक्नो बीजाणु, एसियो बीजाणु, यूरिडियो बीजाणु, टीलियो बीजाणु और बेसिडियो बीजाणु) उत्पन्न करता है।
  • कवकजाल काचाभ और अंतः कोशिकी होता है।

पीला किट्ट/रोली (Yellow Rust)

यह रोग मुख्यतया भारत के उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में पाया जाता है। यह रोग अन्य किट्ट रोग की तुलना में शीघ्र प्रकट होता है। इस कारण इसे अगेती किट्ट (Early rust) भी कहा जाता है।

रोग के लक्षण

  • इस रोग में पत्ती पर पिन के सिरे जैसे—चमकीले पीले रंग के यूरिडियो स्फोट पत्ती की शिराओं के बीच में रेखीय पंक्तियों बनते हैं, अतः इसको ‘धारीधार किट्ट’ भी कहा जाता है।
  • रोग की उग्र अवस्था में यूरिडियो स्फोट पर्णछद , डंठल (Stalk)और दानों पर भी बन जाते हैं।
  • रोग की उग्र अवस्था में अनेक स्फोट एक-दूसरे के पास पास में मिलकर अनियमित रूप से बनते हैं और धारियाँ समाप्त हो जाती हैं। यूरिडियो बीजाणुओं के कारण बाह्य त्वचा फट जाती है और यूरिडियो बीजाणु पीले चूर्ण के रूप में वायुमण्डल में बिखर जाते हैं।

रोगजनक

पक्सिनिया स्ट्रिाईफोर्मिस[Puccinia striiformis]

KingdomGenusSpecies
FungiPucciniastriiformis
  • यह एक अविकल्पी परजीवी और वृहत् चक्रीय कवक है।
  • यह भिन्नाश्रयी (Heteroecious) कवक है।
  • यूरिडियो बीजाणु पीले, गोलाकार, एककोशिक, द्विकेन्द्रकीय होते हैं।
  • टिलियो बीजाणु गहरे भूरे रंग के दो कोशीकीय, मोटी भित्तियुक्त, सिरे पर चपटे होते हैं।

रोगचक्र

उत्तरजीविता – कवक पहाड़ी क्षेत्रों में स्वयं उगे गेहूँ के पादपों या ग्रीष्कालीन गेहूँ पर यूरिडियो बीजाणु के रूप में उत्तरजीवित रहता है।

प्राथमिक संक्रमण-यूरिडियो बीजाणु वायु में उड़कर पहाड़ों से मैदानों में गेहूँ की फसल पर आते हैं

द्वितीयक संक्रमण – प्राथमिक संक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न यूरिडोबीजाणु उसी सत्र में नई गेहूँ की फसल पर संक्रमण करते हैं।

अनुकूल कारक – इस रोग का विकास विशेषकर तापमान व आर्द्रता के प्रभाव पर निर्भर करता है। यूरिडोबीजाणु के अंकुरण के लिए न्यूनतम 20°C तथा अधिकतम 30°C तापमान आवश्यक होता है। रोग का प्रकोप उस मौसम में अधिक उम्र होता है, जब नमी अधिक तथा तापमान 17-18°C हो ।

रोग प्रबन्धन

शस्य क्रियाएँ

  • यदि गेहूँ की फसल को चना या सरसों के साथ मिलाकर बोया जाए. तो रोग का प्रभाव कम होता है।
  • गेहूँ की फसल की बुवाई शीघ्र करने से रोग का प्रकोप कम होता है। अधिक नत्रजन युक्त उर्वरकों का उपयोग पौधों में किट्ट के लिए रोगग्राहिता (Susceptibility) को बढ़ा देते हैं।

रासायनिक नियन्त्रण

  • रोग का प्रकोप होने पर चार दिन के अंतराल पर 25 किलो/है. गंधक का चूर्ण बुरकने से रोग के प्रकोप को कम किया जा सकता है।
  • जिनेव (0.2%) या मेन्कोजेब (0.2%) के छिड़काव से भी रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।